Article 4 - Clever King!



ज्ञान बोधक लेख – ४

चतुर राजा


“मैं आत्मा हूँ| यह जीवन मुझे भागवान में विलीन हो जाने के लिए दिया गया है|”
प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार मनन करते हुए अपने को रूपांतरित करना चाहिए| हम आत्मा के इस सत्य को अवश्य जाने| महानतम अवतार भागवान श्री सत्य साई बाबा हमें यही सिखाने आए हैं|

“बहुत हुआ! जागो! उठो! तुम शरीर नहीं हो|”

देह-बोध के द्वारा ही ‘मैं’ और ‘मेरा’ का उदय होता है, मनुष्य अधिकाधिक धन की इच्छा करता है| चूँकि वह दूसरों के जैसा बनना चाहता है, उसके अंदर क्रोध और ईर्ष्या का प्रादुर्भाव होता है| किन्तु जब वह शरीर छोड़ेगा, वह अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा पाएगा| कौन पत्नी है? कौन बच्चा है? इस सत्य को वाल्मीकि की कहानी के ज़रिए दर्शाया गया है|

रत्नाकर डाकू ने अनेकों लोगों की हत्या की, लूटपाट की और उस धन से वह अपने परिवार का पालन करता था| नारद मुनि ने आकर उससे अपने परिवार से पूछने को कहा,“ तुम सब मेरे धन के भागीदार हो, लेकिन क्या तुम लोग मेरे पाप में भी भागीदार होगे?” उन्होंने कहा,“ इस परिवार की रक्षा करना तुम्हारा उत्तरदायित्व है| हम तुम्हारे दुष्कृत्य में भागीदार नहीं होंगे|” इसके बाद ही रत्नाकर को अपनी गलती का आभास हुआ| उसने तप किया और वह मुनि वाल्मीकि बन गए| ठीक उसी प्रकार, चाहे कितना ही परिश्रम आप अपने परिवार के लिए क्यों न करें, आपके पापों को कोई नहीं बांटेगा| तुम इन दुर्गुणों को हटाने का प्रयास अवश्य करो| काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पापपूर्ण कर्म हैं जो देह-बोध के कारण ही आते हैं| तुम देह-बोधता को अवश्य दूर कर घोषित करो,“ मैं आत्मा हूँ| यह शरीर और इससे जुड़े हुए लोग मेरी आत्मा से जुड़े हुए नहीं हैं|” इस प्रकार तुम अवश्य मनन करो|

८ प्रकार के अहंकार

स्वामी ने एक कागज़ दिया जिस पर उन्होंने लिखा था, इन ८ प्रकार के अहंकार को पहचानो| तुम इन आठों अह्म्भावों को कुचल कर नष्ट कर दो| यह अहंकार इस प्रकार हैं – परिवार, धन, व्यक्तिगत सौन्दर्य, युवावस्था, विद्वता, जन्म स्थान और आध्यात्मिक मार्ग में अतिसंयमित उपलब्द्धियां|



अहंकार एक परदा है जो ईश्वर और अपने सत्य आत्म स्वरूप को ढक देता है| आओ अब इन आठ प्रकार के अह्म्भावों को देखें| स्वामी कहते हैं कि तुम इस अहं भाव को कुचल कर नष्ट कर दो| वह कठोर शब्दों में कह रहे हैं| पिता अपने बच्चों को प्यार करता है| जब वह गलती करते हैं तो वह कठोर शब्दों का प्रयोग करता है और उन पर सख्ती से पेश आता है| स्वामी प्रेम स्वरुप हैं, लेकिन वह अपने बच्चों के प्रति, जो गलत मार्ग पर जा रहे हैं, सख्ती भी दिखाते हैं| आइए अब इन आठों प्रकार के अह्म्भावों को देखें|

1.      परिवार : ‘मोह’ परिवार से आरम्भ होता है : पहले पत्नी, फिर बच्चे, नाती पोते, परनाती पड़पोते| इस तरह ‘मोह’ बढ़ता है और व्यक्ति को मज़बूती से जकड़ लेता है| कुछ दिन पहले मैंने स्वामी की पुस्तक में एक कहानी पढ़ी –
“ एक बार एक राजा ने तप किया और भागवान उसके समक्ष प्रकट हो गए| भागवान ने राजा से पुछा कि उसे क्या चाहिए| राजा ने कहा, ‘मैं अपने पड़पोते का राज्याभिषेक देखना चाहता हूँ|’”
स्वामी ने इस प्रसंग को और ऐसा वरदान मांगने के लिए राजा की चतुराई पर आश्चर्य व्यक्त किया| सभी कुछ इस एक वरदान में निहित था| पहले राजा के एक पुत्र हो, फिर पुत्र के एक पुत्र हो, और उसके नाती के भी एक पुत्र हो| सभी राजा बनें| राज्य नष्ट नहीं होना चाहिए और यह सब देखने के लिए राजा भी स्वस्थ रहे|

Queen Victoria and her family

इस एक वरदान में धन, नाम, शोहरत, उत्तराधिकारी आदि सभी इच्छाएँ समाहित हैं| राजा ने यह वरदान माँगा जिससे उसके कुल में सभी राजा हों| भागवान स्वयं उसके सामने प्रकट हुए किन्तु अपनी इच्छाओं के कारण उसने ऐसा वरदान माँगा| कुचेला बहुत गरीब था और भागवान की खोज में गया| किन्तु जब उसने भागवान को देखा तो वह ख़ुशी में इतना अधिक डूब गया कि कुछ मांगना ही भूल गया| अत: ऐसा अहंभाव जो व्यक्ति में सम्पन्न परिवार में होने के कारण उठता है, उसे जड़ से उखाड़ देना चाहिए|


2.      धन मद : धन का घमंड सबसे बुरा है| सब कुछ नाशवान है| धन स्थायी नहीं है| आज का भिखारी कल करोड़पति हो सकता है, आज का करोड़पति कल भिखारी भी बन सकता है| स्वामी अक्सर ऐसा कहते हैं| धन का अभिमान अत्यधिक बुरा गुण है| धनी लोगों के पास दूसरों के लिए कोई आदर नहीं है| ईश्वर को धन के द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता| सिर्फ विनम्रता की आवश्यकता है| महालक्ष्मी धन-धान्य की देवी हैं| किन्तु वह अपने स्वामी, महाविष्णु, की केवल पाद्सेवा करना चाहती हैं| जब स्वामी नव-विधा भक्ति की व्याख्या करते हैं तब वह ‘पादसेवा’ के लिए महालक्ष्मी का ही उदाहरण देते हैं|





3.      चरित्र : व्यक्ति को अच्छे गुणों को विकसित करना चाहिए किन्तु यदि किसी में इस बात का अभिमान जाग्रत हो जाए कि वह बड़ा गुणवान है तो यह अत्यधिक बुरा है| विनोभा जी भगवत गीता पर अपनी शोधात्मक पुस्तक में कहते हैं कि;
“ यदि किसी को अपने अच्छे गुणों का अभिमान है कि वह एक अच्छा आदमी है तो इसकी अपेक्षा बुरा आदमी होना बेहतर है|”
इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं दुर्गुणों या दुर्जनों के बारे में लिख रही हूँ और उनका समर्थन कर रही हूँ| यदि एक व्यक्ति अच्छा है और उसे अपने अच्छे गुणों का अभिमान है तो वह एक बुरे व्यक्ति से भी निम्न है| विनोभा जी ने इस उदाहरण के द्वारा यह दिखाया है कि ‘अभिमान’ कितना भयानक गुण है| किसी को यह नहीं ज्ञात होना चाहिए कि वह एक अच्छा व्यक्ति है| जब किसी में इतनी विनम्रता होगी तो अभिमान का उदय नहीं होगा| एक बार धर्मराज को संसार में एक बुरे आदमी का पता लगाने को कहा गया| कुछ समय बाद वापस आकर उन्होंने कहा, “ मैंने सारे संसार में खोजा किन्तु वहाँ सभी अच्छे आदमी हैं| सिर्फ मैं ही एक बुरा हूँ|” धर्मराज ‘धर्म के राजा’ के नाम से जाने जाते हैं किन्तु उनका अपने बारे में बिलकुल ही भिन्न विचार था| उनकी नज़र में संसार में सभी अच्छे हैं, सिर्फ वही बुरे हैं| वह स्वयं को भूल गए| वह भूल गए कि वह एक अच्छे व्यक्ति हैं| यदि इतनी विनम्रता होगी तो अभिमान कभी भी नहीं होगा| यद्यपि वह एक सर्वगुण सम्मपन्न राजा थे, उनमें कभी भी अभिमान नहीं था| एक अच्छे व्यक्ति को इसी सीमा तक अभिमान से रहित होना चाहिए|


4.      सौन्दर्य मद : यह बहुत ही खतरनाक है| एक दिन तुम्हारी सुन्दरता लुप्त हो जाएगी| सुन्दरता क्या है? समान्यतया यह शारीरिक सुन्दरता का संकेत देती है| किन्तु बाहरी सुन्दरता कितने दिनों तक रहेगी? सब नाशवान है| सुन्दरता युवावस्था के ज़रिए रहती है| एक बार जब वृद्धावस्था आ जाती है, सुन्दरता फीकी पड़ जाती है| बाहरी सुन्दरता को मत देखो| अपना ध्यान केवल आंतरिक सुन्दरता पर केन्द्रित करो|
स्वर्ग के लोगों में शारीरिक सुन्दरता केवल अप्सराओं के लिए है, क्यों कि वे हमेशा युवा रहती हैं| पृथ्वी पर रहनेवाले मनुष्यों की सुन्दरता आकाश की बिजली की तरह है जो पल झपकते ही गायब हो जाती है| अत: सुन्दरता पर गर्व मत करो|




5.      युवावस्था : युवावस्था भी आकाश की बिजली की चमक की तरह है जो अचानक ही अदृश्य हो जाती है| युवावस्था पर अभिमान करने के लिए स्वामी कहते हैं, “अपने से बड़ों का सम्मान करो|” आज के युवक कल के वयोवृद्ध हैं| समय हमेशा बदलता रहता है| एक बच्चा जन्म लेता है, युवक बनता है, वृद्धावस्था को पहुंचता है और अंत में मर जाता है| अत: किसी को भी अपनी युवावस्था पर गर्व नहीं करना चाहिए| मनुष्य का लक्ष्य सिर्फ भागवान को प्राप्त करना है| यदि ईश्वर की कृपा मिल जाए तो कोई हमेशा युवा भी रह सकता है| मार्कंडेय इसका ज्वलंत उदाहरण है| उसे बताया गया था कि १६ वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो जाएगी| उस दिन से उसने गहन भक्ति की और भागवान ने उसे ‘चिरंजीवी’ था हमेशा १६ वर्ष का रहने का वरदान दिया| युग-युगांतर से वह केवल १६ वर्ष के ही हैं| आदिशंकरा ने भी यही कहा और चेतावनी दी कि किसी को भी अपनी युवावस्था पर गर्व नहीं होना चाहिए| स्वामी भी यही कहते हैं|

आइए एक उदाहरण देखें| किसी समय भुरु नाम का एक राजा था| वह बूढ़ा हो गया था किन्तु उसे अभी भी यौवन के आनन्द भोगने की इच्छा थी| उसने अपने पुत्रों से पूछा कि क्या वे अपनी युवावस्था के बदले में उसकी वृद्धवस्था लेंगे| चार लडकों में से तीन ने मना कर दिया| सबसे छोटा लड़का राज़ी हो गया और उसने अपनी युवावस्था के बदले पिता का बुढ़ापा ले लिया| पिता ने बाकी तीन लडकों को शिकारी होने का श्राप दी दिया| सबसे छोटे लडके ने वृद्धावस्था के कारण अत्यधिक कष्ट सहे जब कि उसके पिता ने यौवन का आनन्द उठाया| काफी लम्बे समय के पश्चात् पिता ने अपनी वृद्धावस्था वापस ले ली और पुत्र को राजगद्दी दी दी|

यह कहानी राजा की युवावस्था के प्रति मोह को दर्शाती है| राजा की यौवन के आनन्द को भोगने की इच्छा ने तीन पुत्रों को शिकारी और सबसे छोटे को बूढ़ा आदमी बना दिया| उसके पास इतनी शक्ति थी कि वह तीन पुत्रों को श्राप दी सका और चौथे पुत्र को वृद्ध बना दिया| परन्तु उसने अपनी सारी शक्ति सिर्फ युवावस्था के भोगों का आनन्द उठाने में समाप्त कर दी| यदि उसने अपनी सारी शक्ति को भागवान की तरफ मोड़ दिया होता तो उसे अमरत्व प्राप्त हो जाता| अत: युवावस्था केवल थोड़े वर्षों तक ही रहती है, फिर वृद्धवस्था आती ही है| इससे कोई भी बच नहीं सकता|


6.      विद्वता : इसका अर्थ है वेदों और शास्त्रों में पांडित्य| परन्तु यह सोच कर गर्व करना कि तुम विद्वान् हो,यह बहुत बुरा है| एक बार अनेकों विद्वान् राजा जनक के दरबार में वाद-विवाद के लिए आए| वाद-विवाद का एक नियम था कि जो पराजित हो जाएगा, उसको दण्ड दिया जाएगा| उसी समय अष्टावक्र दरबार में आए| उनके शरीर में आठ मोड़ थे| जब सभी पंडितों ने उन्हें देखा तो वे यह कहते हुए हंसने लगे, “हम पंडितों के सामने यह लड़का क्या काम करेगा|” अष्टावक्र ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हारे साथ शास्त्रार्थ करने आया हूँ, मेरे बाह्य रूप को देख कर निर्णय मत करो|” तब जो भी प्रश्न उनसे पूछे गए, उन्होंने सभी का सही उत्तर दिया| उन्होंने सभी विद्वानों के गर्व को चूर चूर कर दिया| अत: तुन्हें भी विद्वता के अभिमान को दूर करना होगा|




दिव्यता हर वस्तु में विद्यमान| हम यह कह नहीं सकते कि कैसे और किसके द्वारा इस दिव्यता का प्रकटन होगा| स्वामी ने एक बार मंसूर नामक बच्चे की कहानी सुनाई| मंसूर एक छोटा बच्चा था| उसने अपने वास्तविक स्वभाव को स्पष्ट रूप से जान लिया था| उसने घर छोड़ दिया और निरंतर “मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ” इन शब्दों को दोहराता रहा| रास्ते में चलते हुए वह घोषणा करता था, “मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ”| बहुत से पंडितों ने उसे ऐसा कहते हुए सुना और इस तरह न बोलने के लिए डांट भी लगाई| उन्होंने कहा, “ऐसा मत कहो, तुम ईश्वर कैसे बन सकते हो|” किन्तु वह बार बार उसे दोहराता रहा| अंत में उसे राजा के पास लाया गया| राजा ने कहा, “ अरे बच्चे, तुम अभी बहुत छोटे हो| तुन्हें इस तरह नहीं बोलना चाहिए|” उसने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर हूँ|” राजा तब क्रोधित हो गया और उसने बच्चे की आँखें निकलने का आदेश दे दिया| वह अन्धा हो गया| किन्तु फिर भी वह ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ’ कहता रहा| तब उन्होंने उसके हाथ-पैर भी काट दिए| उसके शरीर से बहते हुए रक्त से आवाज़ आई, “मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ”| उसकी मृत्यु हो गई और उसके शरीर को जला दिया गया| उसकी राख ने दोहराया, “मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ”| यह दर्शाता है कि उसने ईश्वर की अनुभूति कर ली थी| उसके शरीर का प्रत्येक अणु “मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर हूँ” गूंजित कर रहा था| अत: पांडित्य का क्या फायदा? अपने विद्वता के अभिमान में उन्होंने एक असली संत की हत्या कर दी| आह! स्वामी, आपने कितने परामर्श और निर्देश हमें दिए| आपने कितने ही उदाहरणों का वर्णन किया|क्या मानवीय मस्तिष्क कभी जागेगा? अपनी विद्वता के गर्व के कारण उन्हें एक महान संत की हत्या का पाप झेलना होगा| अत: हम अपनी स्थूल बुद्धि के द्वारा सत्य का निर्णय नहीं ले सकते|


7.      निवास स्थान (जन्म स्थान) : किसी को अपने निवास स्थान और कुल का अभिमान होता है| यह भी बहुत खतरनाक है| आइए एक उदाहरण देखें| यादवों को बड़ा गर्व था कि भागवान कृष्ण ने उनके कुल में जन्म लिया| एक बार कुछ ऋषि नजदीक ही ठहरे हुए थे| कुछ यादव युवकों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही| उनमें से एक युवक कृष्ण और जाम्बवती का पुत्र समभं था| दुसरे युवक उसे एक गर्भवती स्त्री के रूप में कपड़े पहनाकर ऋषियों के पास लाए| उन्होंने कहा, “ओ ऋषिवर, कृपया बताएं इस लड़की को कैसा बच्चा पैदा होगा?” ऋषिवर ने कहा, “एक लोहे का मूसल पैदा होगा जो तुम्हारे सारे कुल का नाश कर देगा|” तुरंत एक लोहे का मूसल पैदा हुआ| युवकों ने उस मूसल को कुचल कर चूरा बना दिया और उसे समुद्र में फ़ेंक दिया| एक छोटा टुकड़ा बच गया जिसे वे चूर चूर नहीं कर सके| उसे भी उन्होंने समुद्र में फ़ेंक दिया| चूरा पानी में घुल गया| इस पानी से समुद्र के किनारे घास उग आई|



एक दिन समुद्र तट पर एक उत्सव किया गया| सभी शराब पीकर नाच-गा रहे थे| वे नशे में स्वयं को भूल गए और आपस में झगड़ने लगे| उन्होंने जमीन से लोहे जैसी घास को उखाड़ा और एक दुसरे को मारने लगे| अन्तत: सारे मर गए| इस प्रकार ऋषियों के श्राप द्वारा सम्पूर्ण यादव कुल का नाश हो गया| यही कुल का अभिमान है| अपने अहंभाव के कारण उन्होंने ऋषियों का अपमान किया, जिसकी वजह से उनके कुल का नाश हो गया| ऋषियों को भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों की जानकारी होती है| क्या बच्चों को यह पता नहीं था? फिर क्यों उन्होंने कृष्ण के लड़के संभन को स्त्री की तरह कपड़े पहनाकर ऋषियों से यह सवाल पूछा? यह इसलिए क्योंकि उनको कृष्ण के कुल में जन्म लेने का अभिमान था| इस गर्व ने उन्हें इस तरह बोलने दिया| अन्त में उनका पूरा कुल नष्ट हो गया| द्वारका भी समुद्र में जलमग्न हो गई|


8.      आध्यात्मिक पथ पर अति संयमित उपलब्धियां : आध्यात्मिक मार्ग में की गई साधना हमें गर्वीला बना सकती है| यह बहुत ही खतरनाक है| हम महसूस करते हैं कि, “हम महान तप कर रहे हैं और आध्यात्मिक पथ पर चल रहे हैं|” बहुत लोग इस तरह से सोचते हैं और आश्रम बनाकर उसके मद में डूब जाते हैं| आध्यात्मिक उपलब्धियों के अभिमान को दूर करना आवश्यक है| आइए एक उदाहरण देखें :

एक बार राजा अम्बरीश एकादशी का व्रत कर रहे थे| पंडितों ने कहा कि व्रत तोड़ने का मुहूर्त हो गया है, अत: वह भोजन कर लें| उनके ऐसा करने से पहले दुर्वासा ऋषि वहाँ आ गए और उन्होंने राजा को कहा कि वह स्नान करके वापस आएँगे| पंडितों ने राजा से प्रार्थना करी कि वह व्रत तोड़ दें क्यूंकि सही वक्त हो गया है| राजा ने तब थोड़ा सा जल पी लिया| यह सुनते ही दुर्वासा ऋषि बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने उन्हें श्राप दी दिया| तुरन्त विष्णु का चक्र प्रकट हो गया और उसने दुर्वासा ऋषि का पीछा किया| वह भागते रहे, भागते रहे| वह देवों, ब्रह्मा, और महेश्वर के पास भागकर गए लेकिन कोई भी चक्र को रोक न सका| अन्त में विष्णु ने ऋषि दुर्वासा को राजा अम्बरीश के पास जाकर सहायता मांगने को कहा| उन्होंने ऐसा ही किया| राजा अम्बरीश ने तब चक्र से प्रार्थना की और वह अदृश्य हो गया|



यह कहानी दुर्वासा के आध्यात्मिक अभिमान को दर्शाती है| हम अपनी अंतिम साँस तक आध्यात्मिक साधना अवश्य करें| यही वास्तविक तपस है| एक बार गांधीजी ने कहा, “मुझे अभी महात्मा कह कर मत पुकारो| यदि कोई व्यक्ति मेरे सामने खड़ा होकर मुझे गोली मार दे, तब भी मुझे उस पर क्रोध न आए और मैं राम नाम का उच्चारण कर रहा होऊं, तब तुम मुझे महात्मा कह सकते हो|” आध्यात्मिक साधना में विनम्रता और सादगी का अत्यधिक महत्व है| अहंभाव मनुष्य को समाप्त कर देता है|


अहंभाव एक परदा है जो भागवान और आत्मा को ढक लेता है| ईश्वर और आत्मा एक ही हैं| इसीलिए स्वामी ने ये आठ प्रकार के अहंभावों को लिखा|


जय साई राम
वसंता साई



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