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न्यू शान्ति सूत्र

अध्याय १०

सभी स्वर्गीय लोक यहाँ

स्वामी ने कहा था, कि गुरु पूर्णिमा के दिन कुछ बहुत ही आश्चर्यजनक घटेगा, परन्तु कुछ नहीं
 हुआ| मैंने कहा, “ आप स्थूल रूप में जब चाहें यहाँ आएं, चाहें केवल पांच मिनट के लिए ही आएं और दर्शन दें|” स्वामी ने कहा वह आएँगे|



२२ जुलाई २०१३ मध्यान्ह ध्यान

वसंता : आपने कहा था कि गुरु-पूर्णिमा पर कुछ आश्चर्यजनक घटना घटेगी, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ|
स्वामी : तुम विश्व गुरु बन गई हो| यही एक आश्चर्य है|
वसंता : स्वामी यह कैसे? आपने कहा था कि आप स्थूल रूप में आएँगे, परन्तु नहीं आए| आप कम से कम मुझे एक अंगुली दिखाएँ| मैं वह अंगुली देखना चाहती हूँ जो संदेश लिखती है|
स्वामी : हम एक दुसरे को अभी स्थूल रूप में नहीं देखेंगे| तुम्हारी पीड़ा देख कर, मैंने कुछ कष्ट अपने शरीर पर ले लिए हैं| अत: अभी मैं स्थूल रूप में बाहर नहीं आऊंगा| यदि मैं अभी आता हूँ तो दो लोगों को मेरी सहायता करनी होगी|
वसंता : स्वामी, यह क्या है? आप नए शरीर में भी कष्ट पा रहें हैं| नहीं, नहीं! स्वामी कृपया ऐसा न करें|
स्वामी : तुम्हारे लिए यह पीड़ा असहनीय है, अत: मैंने स्वयं ही तुमसे कुछ कष्ट ले लिए हैं| कुछ ही दिनों में सब ठीक हो जाएगा|
ध्यान समाप्त

आइए अब हम इस बारे में देखें| जब स्वामी ने मुझे यह बताया, तो यह मेरे लिए और अधिक कष्टकारी और परेशानी का कारण हुआ| स्वामी ने इस तरह क्यों कहा? पहले स्वामी ने सारे दुष्कर्मों को अपने शारीर पर ले लिया और शरीर छोड़ दिया| अब उन्होंने कहा कि अपने नए शरीर पर भी उन्होंने पुन: दुष्कर्म ले लिए हैं| जब मैंने यह सुना तो मुझे बहुत परेशानी हुई| इसी कारण से वह अभी अपने स्थूल शरीर में नहीं आए| यदि वह अभी आते हैं, तो उनके शरीर में कुछ अधूरापन होगा, और उन्हें दूसरों की सहायता की आवश्यकता होगी| स्वामी ने ऐसा कहा|

स्वामी ने कहा कि वह मुझे स्थूल रूप में दर्शन देंगे| मैं पिछले दस दिनों से उनसे इसी के लिए कह रही हूँ| मैंने तब कहा, “आप अपने स्थूल शरीर में जब चाहें तब आएं लेकिन उससे पहले आप मुझे अपना एक हाथ या पैर स्थूल रूप से दिखा दीजिए|” परन्तु स्वामी ने न कोई चित्र दिया और न ही दिखाया|  तब स्वामी ने “अग्नि झूला” अध्याय के अंत में पेंसिल से “कारुण्य डिंडीगल” लिखा| जब मैंने इसे देखा, मैंने पूछा, “कृपया वह अंगुली दिखाइए जिसने यह सब लिखा है|” मैं स्वामी की लिखावट से भलीभांति परिचित हूँ| मैंने अनेकों बार उनकी तमिल लिखावट को यहाँ देखा है| स्वामी द्वारा लिखे प्रत्येक अक्षर में मैं उनको देखती हूँ| प्रत्येक शाम मैं स्वामी का वीडियो देखती हूँ, उनका हर हाव-भाव मुझे ख़ुशी से पागल बनाता है| अत: मैंने उनसे एक अंगुली दिखाने को कहा| संसार में कोई भी मेरे जैसा नहीं होगा|

कल “गुरु पूर्णिमा” के दिन दोपहर से मेरे दांत में कुछ दर्द था| शाम होते ही दर्द और भी बढ़ गया| दर्द के बावज़ूद मैंने “गुरु पूर्णिमा” के सारे कार्य-कर्म में भाग लिया| रात्रि ९ बजे, जब पूर्ण आहुति दी गई, मेरा दर्द गायब हो गया| जब मैं अपने कमरे में गई, यहाँ तक कि मैं गाने भी लगी| यह तो केवल अब मैंने जाना कि स्वामी ने मेरा दर्द ले लिया| ‘गुरु पूर्णिमा’ के दिन स्वामी ने कुछ भी नहीं दिया अत: मैं और अधिक रो रही थी| अमर ने शाम को दिव्य डाक में मोम का बैंगनी रंग का फूल पाया| उसमें आठ पंखुडियां थीं और बीच में पीले रंग का गोला था जिस में एक

गुलाबी रंग का चमकदार “वी” शब्द लिखा था| साथ ही एक गुलाब की कली थी, जिसकी डंठल पर छ: पत्तियां थीं| वहाँ पर उन्होंने सुनहरे अक्षर वाला ‘वी’ लिखा| ‘वी’ के एक ओर ‘एस’ अक्षर था| दोपहर जब मैं बहुत रो रही थी, एडी ने ‘ज्ञान वाहिनी’ पुस्तक से वह भाग दिखाया जिस पर स्वामी ने () लगा रखा था| जैसे ही मैं वह पृष्ठ पढ़ रही थी, एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा गिरा| उस कागज़ के एक ओर दो ‘वी’ और दो ‘एस’ थे| उनके पास ही एक क्रॉस का चिन्ह था| नीचे दोनों ओर समांतर और खड़ी लाइनें थीं| पीछे की ओर पगडंडी के रूप में एक सुनहरी पट्टी थी|



२२ जुलाई २०१३ मध्यान्ह ध्यान
वसंता : स्वामी, पेपर में ‘एस’ और ‘वी’ तथा क्रॉस, इसका क्या अर्थ है?
स्वामी : हम भी संसार के कर्मों को क्रॉस की तरह सह रहे हैं| इसके द्वारा ही हम सुनहरा मार्ग बनाएंगे|
ध्यान समाप्त



आइए अब इसके बारे में देखें| इस वर्णन के द्वारा स्वामी यह दिखा रहे हैं कि वह अब भी सांसारिक कर्मों को क्रॉस की तरह ढो रहे हैं| अपने सूक्ष्म शारीर में होते हुए भी वह सांसारिक कर्मों को अपने ऊपर ले रहे हैं, यह इस बात का अच्छा प्रमाण है| इसके द्वारा मैं और स्वामी एक सुनहरा रास्ता बनाते हुए सभी को मुक्ति दे रहे हैं| हम सभी के रहने के लिए संसार को वैकुण्ठ में बदल रहे हैं| शाम को स्वामी ने एक कागज़ दिया जिस पर फूल बना था| वह कागज़ ‘चैतन्य’ पुस्तक का उपसंहार था| स्वामी ने मुझे जो बताया वह मैंने उपसंहार में लिखा था| आइए देखें कि स्वामी ने पेपर पर बड़ा ‘वी’ लिखकर और एक पंक्ति को रेखांकित कर क्या संकेत दिया है|

अपना अवतारिक कार्य समाप्त करने के बाद दोनों पुन: एक हो जाएँगे| स्वामी और मैं अपने जीवन द्वारा यही दिखा रहे हैं|”

दुसरे अनुच्छेद में एक कोष्टक डाला था :
 यह दर्शाता है कि कैसे कलियुग सतयुग में बदलता है| किन्तु वास्तव में चैतन्य तो चैतन्य ही है| ‘ब्रिलियंस ऑफ़ मिलियन संस’ नामक किताब के उपसंहार में स्वामी ने कहा; “मैं स्वामी के शरीर से निकली ज्योति से ज्योति के रूप में जन्मी हूँ|” उन्होंने पुन: कहा, “तुम्हारा ज्योति के रूप में विकास हुआ, तुम ज्योति के रूप में रहीं और अंत में तुम्हारा शरीर ज्योति में बदल कर ईश्वर में विलीन हो जाएगा|”

उसी अनुच्छेद में उन्होंनें एक दूसरा कोष्ठक डाला और लिखा ‘लिब ट्रुथ’| चूँकि स्वामी अभी नहीं आए, मैं अधिक परेशान हो रही हूँ और मेरे शरीर का कष्ट भी समाप्त नहीं हो रहा है|



२३ जुलाई २०१३ प्रात: ध्यान
वसंता : स्वामी, आपने पेपर पर क्या लिखा?
स्वामी : तुम्हारे शरीर का विलय मेरे शरीर में होगा| यह अवश्यम्भावी है| अत: इन दोनों शरीरों के लिए चिंता मत करो| जब मैं स्थूल शरीर में आऊंगा, तब तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो जाएगा| संसार के दुष्कर्म भी सही समय आने पर ही समाप्त होंगे|
वसंता : स्वामी, बैंगनी रंग का फूल क्या है?
स्वामी : यह स्वार्गिक फूल है, तुम एक गुलाब की तरह नीचे आई हो|
वसंता : स्वामी कृपया शीघ्र आइए, जल्दी आइए|
ध्यान समाप्त

मेरा शरीर निश्चित रूप से स्वस्थ हो और स्वामी अपने स्थूल रूप में आएं - इन्हीं दो बातों से मैं हमेशा परेशान रहती हूँ| स्वामी ने अब यह कहा कि यह दोनों बातें निश्चित रूप से घटित होंगी| इसके प्रमाण स्वरुप स्वामी ने “चैतन्य” नमक पुस्तक का उपसंहार दिया| वहाँ मैंने “ब्रिलियंस ऑफ मिलियन संस” नामक पुस्तक का प्रसंग दिया, जहाँ स्वामी ने कहा कि मैं स्वामी की ज्योति से ज्योति के रूप में जन्मी हूँ| इस पंक्ति पर कोष्टक था, साथ ही विशेष ध्यान देने के लिए नीचे लकीर भी खीची थी| अभी सांसारिक दुष्कर्म समाप्त नहीं हुए हैं क्योंकि सही समय अभी नहीं आया है| सांसारिक कर्मों के समाप्त होने तक मेरे शरीरिक कष्ट ज़ारी रहेंगी|

आइए बैंगनी रंग के आठ पंखुड़ियों वाले फूल को देखें| यह वसंता गुलाब पृथ्वी पर वैकुण्ठ स्थापित आया है| साई राजा का गुलाब पृथ्वी पर कष्ट उठाने के लिए ही आया है| छ: पत्तियां ‘षड गुणों’ को इंकित करती हैं| स्वामी ने आठ वर्षों तक संसारिक कर्मों को अपने ऊपर सहन किया और अंत में अपना शरीर छोड़ दिया| वे पुन: मेरे आंसुओं, रुदन और तड़प से स्थूल शरीर में आए जो इन प्राकृत आखों से नहीं दिखाई देता| चूँकि मैं सांसारिक कर्मों से पीड़ित हूँ, स्वामी ने पुन: कुछ कर्मों को अपने ऊपर ले लिया|

उन्होंने केवल अभी यह सत्य बताया हैं जिसे सुनकर मैं सहन करने में असमर्थ हूँ| वह पुन: दुःख पीड़ित होते हैं| इस संसार में लोगों के कितने और कर्म बाकी हैं? क्या समस्त सांसारिक कर्मों को हटा कर सभी को ‘मुक्ति’ प्रदान करना आसान काम है? यह हमारे मनोरंजन के लिए कोई हास्यप्रद खेल नहीं है| यह इस महानतम अवतार का महानतम अवतारिक कार्य है| बहुत सी कहानियाँ और अविश्वसनीय घटनाएँ घट रही हैं| यह सब दूसरों के यकीन करने के लिए नहीं लिखी गईं हैं| यह घटनाएँ हमारी भावनाओं के द्वारा संसार में परिवर्तन लाने के लिए लिखी गईं हैं| इनका कोई ‘शास्त्र-प्रमाण’ नहीं है, क्यों कि संसार में ऐसा पहले कभी नहीं घटित हुआ|

मुक्ति पाने के लिए एक व्यक्ति को कितने जन्म लेने आवश्यक हैं? तो सोचो करोड़ों व्यक्तियों के कितने कर्म होंगे? सभी को मुक्ति दिलाने के रास्ते में कितने कर्मों को कटना होगा?

अत: इश्वर ने सांसारिक लोगों के कर्मों को सहने कि वजह से ही अवतार लिया है| क्या अन्य किसी पहले अवतार को इस प्रकार के कष्ट सहने पड़े? जो स्वयं चलने से मजबूर हो? कौन से अवतार को आपरेशन करना पड़ा? क्या कोई पूर्व अवतार इस तरह से अस्पताल में भर्ती हुआ था? क्या किसी ने अपना शरीर वहाँ छोड़ा? ज़रा गहराई से इस पर विचार करिए| स्वामी को इस तरह कष्ट क्यों उठाना पड़ा? इसका शास्त्र प्रमाण कहा से दिखाएँ? इस अवतार ने कलियुग के लोगों पर कितनी ‘दया’ बरसाई है| चूँकि मैं इसे सहने में असमर्थ हूँ, मैं यह सब अपने आसुओं से लिख रही हूँ| आप इस पर ध्यान दें| सोचिए! सोचिए!

आइए देखें ‘वैकुण्ठ कैलाश यहाँ’ नामक अध्याय इसमें कैसे संगत बैठता है|

१९ अगस्त २००८ ध्यान
स्वामी : त्रिशंकू सशरीर स्वर्ग में जाना चाहते थे| लेकिन वह ऐसा कर न सके| तुम स्वर्ग को विश्व में ला रही हो, यह दिखने के लिए कि वैकुण्ठ पृथ्वी पर है| शिव-शक्ति सृष्टि के लिए, तुमने दिखाया कि कैलाश यहाँ भूलोक पर है| फिर तुमने दिखाया कि सत्य-लोक भी यहीं है| सब कुछ यहीं है| व्यक्ति अपना जीवन स्वर्ग व् नर्क अपनी भावनाओं के आधार पर बनता है| तुम यह अपने जीवन द्वारा दर्शा रही हो|

वसंता : स्वामी, अब मैं समझ गई हूँ| मैं लिखूंगी|

ध्यान समाप्त
त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग को पाना चाहते थे| लेकिन वह यह कर न सके| कोई भी स्वर्ग ऐसे नहीं जा सकता| किन्तु प्रेम साई अवतार में स्वर्ग ही पृथ्वी पर उतर आएगा| स्वर्ग क्या है? स्वर्ग वह है जहाँ दुःख और चिंताएं नहीं होतीं| वहाँ सभी स्वत: आनन्दित रहते हैं| वे सांसारिक जीवन को आनन्द-मय अनुभव करेंगे| यहाँ संसार में यदि आप किसी से पूंछे, ‘क्या आप हमेशा खुश रहते हैं?’ तो कोई भी ‘हाँ’ नहीं कहेगा| जन्म का अर्थ है दुःख, जीवन का अर्थ है दुःख, परिवार, पत्नी, बच्चे सभी किसी न किसी रूप में दुःख का कारण हैं| केवल दुःख ही दुःख| आदिशंकरा ने यह शिक्क्षा दी :
‘जन्म दुःख, जरा दुःख, पुन: पुन: संसार सागर दुःख है|’
जन्म दुःख है, बीमारी दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, यह सांसारिक जीवन वस्तुत: दुःख का सागर है|
फिर मनुष्य क्या करे? केवल एक ही उपाय है कि भागवान को समर्पित हो जाओ| सभी लोग कष्ट में हैं| महान साधू संतों ने भी दुःख सहा है| इस शरीर में हम लोग कितना कष्ट सह रहे हैं| कितना कष्ट हमें अभी और सहना है? कितने रोग हैं? जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, बुढ़ापा आने लगता है, और अधिक परेशानियाँ आती हैं| यदि हम सांसारिक जीवन की साधारण खुशियों को जीवन में नहीं पा सकते, तो हमें स्वर्ग का आनन्द कैसे मिल पाएगा? फिर इस आनन्द को कहाँ से पाएं?

बाल्यकाल से ही मैं शरीर, रोग, और वृद्धावस्था से बहुत डरती थी| इनसे बचने के लिए मैंने स्वयं को स्वामी को समर्पित किया| मैंने सोचा यदि पृथ्वी पर आनंद पाना है तो ईश्वर के साथ ही रहना होगा| यही मेरे विचार थे| मैंने तब माता सीता और रुक्मिणी के जीवन पर विचार करना प्रारम्भ किया, जिन्होंने ईश्वर से विवाह किया और पृथ्वी पर जीवन बिताया| क्या उन्हें कष्ट नहीं सहने पड़े? फिर और क्या रास्ता है? मैंने गहराई से पुन: विचार किया|

अंत में मुझे एक रास्ता दिखा| इस संसार में कोई अज्ञानी व्यक्ति न रहे जो ईश्वर के जीवन में हस्तक्षेप करे| तब मैंने इसके लिए तप किया| मैंने स्वामी से वरदान माँगा, कि सम्पूर्ण विश्व वसंतामयम हो जाए, सभी मेरी तरह हो चाहिए| लोग यहाँ स्वार्गिक आनन्द उठाएंगे| यदि मानव सशरीर स्वर्ग नहीं जा सकता, तो स्वर्ग मनुष्य की खोज में पृथ्वी पर क्यों नहीं उतर सकता? त्रिशंकु अपने स्थूल शरीर के साथ स्वर्ग न जा सके| मैं चाहती हूँ कि सम्पूर्ण पृश्वी स्वर्ग का आनन्द ले| प्रेम साई अवतार में स्वामी ने मुझे स्वर्ग के आनंदों को दर्शाया| मैंने उनसे परिवार के सदस्यों के लिए भी स्वर्ग के द्वार खोलने का निवेदन किया| अब स्वामी पूर्ण विश्व के लिए स्वर्ग का द्वार खोल देंगे|



वैकुण्ठ कहाँ है? पुरातन काल में यह कहा जाता था कि वैकुण्ठ सात पहाड़ियों और सात समुद्रों के पार है| वहाँ कौन जा सकता है? यदि देवता ही वहाँ नहीं जा सकते, तो मनुष्य कैसे जा सकेगा? साधना के द्वारा मनुष्य वैकुण्ठ को अपनी जगह पर ही ला सकता है| इसी लिए मेरी पहली पुस्तक मैं स्वामी ने कहा, “वडकमपट्टी ही वैकुण्ठ है|” एक बार मैंने स्वामी से पूछा, “क्या हम इस पृथ्वी को वैकुण्ठ ले चलें?” स्वामी ने कहा, “हम पृथ्वी को वैकुण्ठ नहीं ले जा सकते, लेकिन वैकुण्ठ को नीचे पृथ्वी पर अवश्य ला सकते हैं|” इसी करण वैकुण्ठ पृथ्वी पर आ रहा है|

वैकुण्ठ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है शान्ति| जहाँ शान्ति है, वहीं वैकुण्ठ है| क्या संसार में कोई व्यक्ति है जो कहता हो, “मैं शान्ति से हूँ|” मनुष्य का मन समुद्र की तरह चंचल है| जब समुद्र शांत होता है, तभी लहरें भी शांत होती हैं| किन्तु यह लहरें कब शांत होंगी? लहरें कभी शांत नहीं होंगी| जब मन को ईश्वर पर टिका देंगे तभी लहर रूपी विचार शांत होंगे| मनुष्य ध्यान में कुछ शान्ति पता है| परन्तु जैसे ही वह आँखे खोलता है, तरह-तरह के विचार आते जाते रहते हैं| विचार शून्य स्थिति ही ‘शान्ति’ है| यह स्थिति कैसे आएगी? ऐसी स्थिति कभी नहीं आएगी|

हमारे विचार केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित हओने चाहिए| हमें अवश्य ही अपने विचरों को ईश्वर की ओर मोड़ना होगा| मेरे विचार केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित थे, अत: ‘वडकमपट्टी’ जहाँ मैं रहती थी, वैकुण्ठ बन गया| स्वामी ने फिर कहा, “मुक्ति-निलयम वैकुण्ठ है|” अत: जहाँ जहाँ मैं रहती हूँ, वैकुण्ठ वहीं पर है| जो लोग मुक्ति-निलयम आते हैं वे कहते हैं, “हम यहाँ बहुत शान्ति अनुभव करते हैं|” कुछ समय पहले उत्तर भारत से एक संत यहाँ आए| उन्होंने कहा, “मैं बहुत से आश्रमों में गया, किन्तु मैंने शान्ति केवल यहीं पाई|”

मेरे प्रेम की अनुभूति के लिए स्वामी अपना वैकुण्ठ यहाँ नीचे ले आए| यहाँ हम स्वार्गिक मनोरंजन को वैकुण्ठ की शान्ति के साथ अनुभुव करते हैं| वैकुण्ठ में दर्द-दुःख और डर नहीं है,केवल शान्ति ही है| वैकुण्ठ शद्ध-चैतन्य की स्थिति है| वशिष्ठ गुफा में मैं शुद्ध-चैतन्य के रूप में स्वामी में विलीन हो गई| यही वैकुण्ठ है| जो व्यक्ति शुद्ध-चैतन्य रूप में ईश्वर में एकात्म हो जाता है, वही वैकुण्ठ की स्थिति में है| सभी ऐसा नहीं कर सकते| एक वसंता शुद्ध-चैतन्य रूप में शुद्ध-चैतन्य रूप स्वामी में विलीन हो गई| वसंतामयम विश्व अब शुद्ध-चैतन्य हो कर स्वामी में समा गया| यही वैकुण्ठ का पृथ्वी पर नीचे उतरना है|

कैलाश क्या है? जहाँ शिव-पार्वती, गणेश, मुरुगा और सभी गण-प्रेत रहते हैं, वही कैलाश है| यही उनका स्थान है| शिव ने जहाँ काम-दहन किया,पार्वती ने जहाँ तप किया और जहाँ उनके ज्ञानी बच्चे रहते हैं, वही कैलाश है| पार्वती ने शिव से विवाह करने के लिए तप किया| उसके बाद शिव ने काम-दहन किया अर्थात कामुकता को जलाया| उन्होंने संसार के दुखों को दूर करने के लिए पार्वती से विवाह किया|



शिव-शक्ति का सिद्धांत मानव शरीर में कार्य करता है| तप के दौरान कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर ऊपर को चढ़ती है और ‘शिव’ के साथ ब्रह्मारंद्र में विलय हो जाती है| यहाँ जीव और शिव एक दूसरे का ख़ुशी ख़ुशी अनुभव करते हैं| यह आनन्द की स्थिति है| यहीं से सृष्टि का उदय होता है| सृजात्मक शक्ति मनुष्य के अन्दर से उभर कर आती है| यह ब्रह्मारंद्र ही कैलाश है| यदि मनुष्य इस स्थिति को पा ले, तो वह कुछ भी रच सकता है| शुद्ध-चैतन्य रूप में ईश्वर में विलय होकर साक्षी भाव में रहना ही वैकुण्ठ है| कैलाश सृष्टि है| यहाँ शिव और पार्वती साथ रहते हैं| यद्यपि यह सृष्टि है, किन्तु वहाँ ‘काम’ नहीं है|

जब बिंदु खुलता है, तो रूप-रेखा उभर कर आती है, यही ‘सत्य लोक’ है – ब्रह्मा की स्थिति| साधना के द्वारा मैंने दिखाया कि स्वर्ग, वैकुण्ठ, कैलाश और सत्य-लोक सभी व्यक्ति के अपने शरीर में ही हैं| ‘सिल्वर आइलैंड’ में मैंने स्वामी के साथ सूक्ष्म शरीर में इन सभी का आनन्द लिया| यही स्वार्गिक आनन्द है| मनुष्य इसे साधना के द्वारा पा सकता है| मेरा जीवन यह दिखा रहा है| स्वर्ग हमारे अंदर ही है| यह ‘चरम आनन्द’ कहलाता है| यह हमसे अलग आकाश में नहीं है|

त्रिशंकु के हृदय में उठी एक विशेष प्रकार की इच्छा को वह रोक न सके| वह सशरीर स्वर्ग में जाने को बेचैन थे| इसे पूर्ण करने के लिए त्रिशंकु अपने पारिवारिक गुरु, मुनि वशिष्ठ, के पास गए| उन्होंने कहा, “गुरुदेव, कृपया मेरी इच्छा को पूरा करके मेरे जीवन को धन्य बनाइए|” वशिष्ठ ने भलीभांति सोच कर कहा, “तुम शर्म करो| तुम्हारी इच्छा अप्राकृतिक है| यह शरीर मल से परिपूर्ण है| यह कफ़, मल और बिमारियों का घर है| इस क्षणिक शरीर को स्वर्ग के परिसर में ले जाने का अर्थ है शव को अपने साथ घसीटना| लोग अपने सत्कर्म और अनेकों जन्मों में किए गए यज्ञों के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करते हैं| सशरीर वहाँ जाना असम्भव है| यह ईश्वर और प्रकृति के कानून के विरुद्ध है| यह विचार ही तुम्हारे लिए उचित नहीं है| मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता| यदि तुम्हें हट है, तो तुम किसी और संत की सहायता लेलो|” – समर शावरज १९९५, पृष्ठ ११८



मैं भी अपने शरीर के साथ भगवान के पास जाना चाहती हूँ| मैं भी अपने शरीर को ले जाने की इच्छा करती हूँ, लेकिन इस गंदे शरीर को नहीं अपितु मैं पूर्ण रूपेण अपने शरीर को रूपांतरित करूंगी| यह वृद्ध शरीर एक नवयुवती में परिवर्तित होगा| कफ़, मल और बिमारियों से रहित एक पूर्ण किशोरी के रूप में पवित्र और संजना होगा| फिर यह एक ज्योति का रूप ले कर स्वामी में विलीन हो जाएगा| वही वशिष्ठ और अरुन्धती अब बेटी कि तरह मेरी सहायता कर रहे हैं| यही ‘नाड़ियों’ में लिखा है, कि मेरा शरीर पूर्णत: बदल जाएगा| यह ‘अवतारिक कार्य’ के लिए ही है| मेरा शरीर किशोरी, संजना और सुन्दर होगा| यह बदलाव ही नई सृष्टि है|

मेरा शरीर प्रकृति का प्रतीक है| मेरे शरीर का बदलना ही विश्व के बदलाव को दर्शाता है| अभी मेरा शरीर कलि-युग को दर्शाता है| मैं इसे बदलने के लिए तप कर रही हूँ| जब कलि-युग बदलेगा तभी न्यू सत-युग आएगा| यह ईश्वर के नियम के अनुसार नहीं है, अप्राकृतिक है| फिर भी यह स्वर्ग होगा- एक नया युग| इस नई सृष्टि में किसी अन्य के विचारों का मिश्रण नहीं होगा| स्वर्ग के रस-भोग अब पृथ्वी पर आ रहे हैं| यह स्वर्ग का नीचे पृथ्वी पर आना है| सत्य-लोक ब्रह्मा का लोक है| मैंने ‘प्रिंसिपल्स ऑफ़ बिकमिंग गॉड’ नामक पुस्तक में लिखा है कि साधना के द्वारा व्यक्ति में रूप रेखा स्वयं से उभर कर आती है और वह व्यक्ति कुछ भी रच सकता है| मैंने इसे अपने जीवन द्वारा दिखा रही हूँ|




वैकुण्ठ, कैलाश और सत्य-लोक प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर ही हैं| स्वर्ग या नर्क का जीवन व्यक्ति के अपने हाथ में है| वैकुण्ठ, स्वर्ग और मुक्ति कहीं दूर दूसरे स्थान पर नहीं हैं| वे हम सभी के अन्दर हैं| यही मेरी साधना है| यही नई सृष्टि है| यह सत्य-युग है| यहाँ सभी स्वार्गिक सुखों का अनुभव वैकुण्ठ की शान्ति के साथ पृथ्वी पर करेंगे|

वैकुण्ठ दृष्टा की स्थिति है| वहाँ केवल ईश्वर और उनकी शक्ति हैं| वहाँ केवल ‘शान्ति’ है| वहाँ कोई पारिवारिक जीवन नहीं है| इसलिए स्वामी और मैंने वैकुण्ठ को कैलाश में बदल दिया| सत्य-लोक भिन्न है| ब्रह्म देव सदैव सृजन के लिए तत्पर हैं और देवी सरस्वती सदैव ज्ञान देने ले लिए| वहाँ भी कोई पारिवारिक जीवन नहीं है| नारद और वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं| सिर्फ कैलाश में ही पारिवारिक जीवन है| किन्तु यह सांसारिक जीवन कि तरह नहीं है| यह परिवार पार्वती के तप और शिव के काम-दहन द्वारा आया है| इसलिए यह नई सृष्टि है| नई सृष्टि के लिए हमें शिव-सूत्र को अपनाना है| शिव की अग्नि से मुरुगा का जन्म हुआ था| जब पार्वती उनके निकट बैठीं और उन्होंने शिव का स्पर्श किया, तो अग्नि उत्त्पन हुई और मुरुगा का जन्म हुआ| उसी तरह से स्वामी और मेरे द्वारा नये विश्व का जन्म होगा, जैसे अग्नि से फूल खिल रहा हो| अत: विश्व में शान्ति होगी|

जय साई राम
वसंता साई

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