ज्ञान बोधक लेख – ३
अनिवार्य विवाह
स्वामी ने आज एक लिखित पृष्ठ दिया जो कई भागों में विभाजित था| आइए
उसके पहले भाग को देखें:
*आत्म समर्पण, यानि एक भक्त के व्यक्तित्व में क्रमिक
बदलाव, भक्त की चैतन्यता को धीरे धीरे उसके चुने हुए इष्ट देवता में विलय होने की
स्वीकृति देता है|
स्वामी ने यहाँ एक तारा चिन्ह लगाया, जो क्रमिक मुक्ति का संकेत देता
है, जहाँ एक व्यक्ति उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे मुक्ति प्राप्त करता है|
वह अपने इष्ट देवता, अपने चुने हुए आदर्श को प्राप्त करता है| स्वामी ने कहा, यही
आत्म समर्पण है, और इसे क्रमिक मुक्ति कहा जाता है| उन सभी ने जिन्होंने यहाँ जन्म
लिया है, भागवान को अवश्य प्राप्त करें, यही क्रमिक मुक्ति है, उत्तरोत्तर बढ़ते मुक्ति
का मार्ग| चाहे कोई कितने ही जन्म ले, यह सभी का उद्देश्य है| एक व्यक्ति हजारों बार
जन्म लेता है और क्रमिक मुक्ति के द्वारा धीरे धीरे भगवान को प्राप्त करता है|
दूसरा व्यक्ति पूर्ण तल्लीनता से साधना के द्वारा, यहीं और अभी मुक्ति प्राप्त करता
है| स्वामी ने अपने जीवनकाल में हमें यही सिखाया है|
हम अवश्य ही पूर्ण प्रयास के साथ साधना करें और ईश्वर को प्राप्त करें|
इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त सब कुछ नाशवान है| कोई जो कुछ भी इस जीवन में
अर्जित करता है वह स्थाई नहीं है| इस संसार को छोड़ते समय तुम रुपया पैसा, पद,
सम्बन्धी आदि कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकते| यदि यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाए,
तब तुम अत्यधिक लाभान्वित होगे| इस नियम का अनुसरण भागवान के किसी भी स्वरुप के साथ
किया जा सकता है और तुम उन्हें प्राप्त कर सकोगे| यही स्वामी दर्शाते हैं और सर्व धर्म
प्रतीक के द्वारा यही घोषित करते हैं| ईश्वर एक है, सभी धर्म समान हैं| ईश्वर अंतर्यामी
के रूप में सभी के हृदय में साक्षी-रूप में निवास करते हैं|
साधना के द्वारा हमें उन्हें अवश्य जगाना चहिए| तभी अन्तर्यामी परमात्मा
आकार में अधिकादिक बढ़ते हुए हमारा मार्गदर्शन करते हैं| भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय
में, उपदृष्टा, हनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर, इन पांच चरणों के द्वारा यही बात
कही गई है| भागवान सभी के हृदयों में एक नीली ज्योति के रूप में, जो एक धान के दाने
के निचले भाग के आकार की है, निवास करते हैं| साधना के द्वारा वह नीली ज्योति बढ़ती चली जाती है,
जब तक कि वह पूरे शरीर में फैल नहीं जाती| इस स्थिति में जीव शिव बन जाता है| यही महेश्वर
की अवस्था है| मैंने “बियौंड उपनिषद” में “फूड विद्या” के अध्याय में एक चित्र के द्वारा
यह दिखाया है कि किस तरह यह नीली ज्योति फैलती है और पूरे शरीर में भर जाती है|
1.
101
नाड़ियाँ हृदय गुफा से निकलती हैं जहाँ भागवान एक
छोटी नीली रौशनी के रूप में निवास करते हैं| जब हम निरंतर साधना करते हैं, छोटी
नीली रौशनी चमकदार हो जाती है|
2.
उत्कट (तीव्र)
भक्ति है प्रेम निवेदन, सभी मानवीय अनुभवों को हृदय रूपी गुफा में निवास करने वाले
अन्तर्यामी को अर्पित कर देना| भागवान इस भोजन को खाते हैं और हमें सत्य प्रसाद,
उच्च ज्ञान प्रदान करते हैं|
नीला तोयादा मध्यस्थाद विद्युल्लेखेव भास्वरा |
निवारा सुकावत तन्वी पिता भास्वत्यानुपमा ||
वह जो नीली ज्योति के रूप में हृदय के केंद्र में स्थित है, वह प्रत्येक
का निजी ईश्वर है| ऐसा कहा जाता है कि वह ब्रह्मा, हरि, शिव और इन्द्र है|
लेकिन मैं कहती हूँ कि उसके सिर्फ यही नाम नहीं हैं| वह ईशू, अल्लाह,
गुरु नानक, ज़ोरास्टर, बुद्ध और महावीर भी है| हर व्यक्ति की इच्छानुसार उसका मनपसन्द
स्वरुप प्रकट होता है और अपनी कृपा बरसाता है| महानतम अवतार हमें यही दिखाने के लिए
आए हैं| वेदों में बताया गया है कि अन्तर्यामी ही प्रत्येक व्यक्ति का मनपसन्द आदर्श
है| एक साई भजन के शब्द भी यही कहते हैं –

राम कहो, कृष्ण कहो, ईश्वर अल्लाह साई कहो,
बुद्ध कहो, गुरु नानक कहो, ज़ोरास्टर महावीर ईशू कहो,
युग अवतार तुम हो, विश्व शक्ति तुम हो,
सर्व धर्म प्रिय साई महेशा,
परब्रह्म तुम हो|
यहाँ यह स्पष्ट है कि स्वामी ही युगावतार, विश्व शक्ति हैं| सभी धर्म केवल
एक ही शिक्षा देते हैं, वह है ‘प्रेम’| यही स्वामी भी दर्शाते हैं| स्वामी की उपस्थिति
में सभी वेदोच्चारण करते हैं| इसके बावजूद भी लोग क्यों जाति, सम्प्रदाय और धर्म में
भेद देखते हैं? नारायण सूक्तं भी यही कहता है| सभी जानते हैं कि भागवान सभी में धान
के दाने के पिछले भाग के आकार की नीली ज्योति के रूप में विराजमान हैं| सभी प्राणियों
में ऐसा ही है| हम कहते हैं कि वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं| हिन्दू धर्म में
भागवान के अनेक रूपों की पूजा करी जाती है| कुछ शिव की उपासना करते हैं, कुछ विष्णु
और कुछ अन्य ब्रह्मा और इन्द्र की उपासना करते हैं| श्लोक घोषणा करता है कि एक व्यक्ति
भागवान के कितने ही नामों और रूपों की पूजा कर सकता है| हमारे हृदय में स्थित नीली
ज्योति ब्रह्मा, विष्णु और शिव है| हिन्दू धर्म में यही नीली ज्योति सैकड़ों देवी देवताओं
का रूप है; सभी के मनपसन्द इष्ट हैं|
ईसाई लोग भी उसी नीली ज्योति को देखते हैं| कुछ के लिए यह ‘जीजस’ है,
तो दोसरों के लिए ‘वर्जिन मैरी’| प्रयेक धर्म उसके द्वारा पूजित देवता के रूप में
इस नीली ज्योति को देखता है| सनातन धर्म का अनुसरण करने वाला हिन्दू धर्म है| उस समय
वेदों ने घोषित किया था कि सभी के हृदयों में ईश्वर नीली ज्योति के रूप में वास करते
हैं| सम्पूर्ण विश्व में सभी के लिए ऐसा ही है| स्वामी ने अब वैदिक साहित्य के विस्तार
का उपदेश दिया है कि परमात्मा केवल एक ही है| स्वामी सभी धर्म के अनुयायिओं को यही
दर्शाते हैं| जब हम अपने व्यक्तिगत भाव को छोड़ते हैं, तभी हमें इस बात का बोध होता
है कि सभी एक हैं| तभी हम सबके प्रति प्रेम दर्शाकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं|
सत्य साई स्पीक्स भाग ९, पृष्ठ ११६ में स्वामी कहते हैं,
‘कोई भी पूरी तरह से नहीं जानता कि वेद अपने वर्तमान
रूप में कब संकलित किए गए थे| बाल गंगाधर तिलक का अनुमान है कि ऐसा तकरीबन १३००० साल
पहले हुआ होगा| दूसरे इसे ६००० वर्ष पहले हुआ बताते हैं, लेकिन इस बात से सभी सहमत
हैं कि ऐसा लगभग ४००० वर्ष पूर्व हुआ होगा| बुद्ध एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं जो करीब
२५०० साल पहले हुए| क्राइस्ट १९६९ साल पहले जन्में थे, और इस्लाम उसके ६०० साल बाद
बना| अत: घटनाओं के कालानुक्रम एवं तार्किक रूप से देखने पर यह निष्कर्ष सही है कि
वैदिक धर्म दादा है, बुद्ध धर्म पुत्र, ईसाई धर्म पौत्र और इस्लाम प्रपौत्र है|
अत: सभी धर्म एक ही कुल के हैं, ईसाई, हिन्दू मुस्लिम
आदि का कोई भेद नहीं है| सभी में नीली ज्योति के रूप में एक ही अन्तर्यामी परमात्मा
विराजमान हैं, अत: सबी में कोई भेद नहीं है| एक ही ईश्वर की संतान हैं|’
दूसरे भाग में स्वामी ने लिखा,
“‘अहं’ हमारे शरीर और शरीरिक दृष्टि से पहचान करवाता
है यानि देह बोध करवाता है| जैसे धुँआ अग्नि को ढक देता है, उसी प्रकार ‘अहं’ हमें
चरों तरफ से ढक लेता है, अत: हम अपने दिव्य स्वभाव को नहीं देख पाते| हमारा श्रेष्ठ
स्वभाव इस ‘अहं’ द्वारा ढका हुआ है, जो हमारे अमानुष स्वभाव से पहचान करता है|
‘अहं’ शरीर और उससे जुड़े हुए लोगों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है|
इसी से ‘मैं’ और ‘मेरा’ का जन्म होता है| हम उन सबसे सम्बन्ध जोड़ते हैं जो इस शरीर
से जुड़ा हुआ है| इससे क्रोध, ईर्ष्या और अन्य बुराइयों का जन्म होता है| देह बोध के
सम्बन्ध होने के कारण कामुकता, क्रोध, लोभ, अहं, ईर्ष्या और मोह आदि छह अवगुण हमारे
अंदर वास करते हैं| जैसे धुआं अग्नि को ढक लेता है, हम भी इन छह अवगुणों से ढके हुए
हैं| हम अपने असली स्वभाव को जानने में असमर्थ हैं| हमारा असली स्वभाव क्या है? हम
अमर और शाश्वत हैं| स्वामी हमें ‘अमर वत्स’ कह कर सम्बोधित करते हैं| हमारा वास्तविक
स्वभाव अमरत्व है| हमारा यह वास्तविक स्वभाव ढका हुआ है और हमें अमरत्व की अवस्था को
प्राप्त नहीं करने देता| देह बोध के कारण हमारा बार बार जन्म और मरण होता है| यदि हमें
अपने वास्तविक स्वभाव की अनुभूति हो जाए तो हमारा दोबारा जन्म नहीं होगा और हमें मुक्ति
प्राप्त हो जाएगी| जब तक हम इस सत्य को नहीं समझते, तब तक हम निश्चित रूप से जन्म और
मृत्यु को प्राप्त होते रहेंगे| जब तक हम इस सत्य को नहीं समझेंगे, यह जरामरण का चक्र
कभी भी समाप्त नहीं होगा| अन्यथा हमको क्रमिक मुक्ति के मार्ग द्वारा धीरे धीरे ‘मुक्ति’
प्राप्त करनी होगी|
चूँकि सभी में देह बोध होता है, इसलिए सारी भौतिक वस्तुएं जैसे स्त्री,
बच्चे, सम्बन्धी, धन, पद आदि उससे जुड़ जाते हैं| इस तरह जीवन व्यतीत होता रहता है|
यहाँ तक कि यदि कोई अपने देहाभिमान को भूल भी जाए तो दूसरे उसे ऐसा करने नहीं देंगे|
एक उदाहरण – एक व्यक्ति का पुत्र अविवाहित है| उसका मित्र उससे पूछता है,
“तुम्हारा पुत्र सयाना हो गया है, तुमने उसका विवाह निश्चित नहीं किया? तुमने अपनी
पुत्री का भी विवाह नहीं किया?” मित्र उस युवक कि आयु को देखता है और पिता को पुत्र
और पुत्री के विवाह के लिए उकसाता है| शादी हो जाने के एक वर्ष बाद वही व्यक्ति
पूछता है, “तुम्हारे पुत्र और पुत्री के अभी कोई बच्चा नहीं है?” अत: माता पिता अपने
बेटे बेटियों का विवाह करना अपना कर्तव्य समझते हैं| यदि माता पिता शांत रहते हैं और
इस विषय में कुछ नहीं करते तो अन्य लोग कहते हैं कि वे भयंकर पाप कर रहे हैं| यह कैसा
विचित्र संसार है? युग युगांतर सिर्फ एक ही बात ‘मेरा बच्चा और विवाह’| यह दोनों बातें
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में गहराई से छप गई हैं| इन्हें विशेष महत्व दिया जाता है|
समाज मनुष्य को किसी अन्य तरह से रहने ही नहीं देता| देह बोध के करण मनुष्य बारंबार
जन्म लेता है और मरता है| यहाँ विवाह और बच्चों का होना सभी के लिए अनिवार्य बना दिया
गया है|
जय साई राम
वसंता साई
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