Article 2 - Clown and Beggar

ॐ श्री साई वसंता साईसाय नमः

ज्ञान बोधक लेख – २



विदूषक और भिखारी


यामिनी ने एक प्रश्न पूछा, “ ऐतरेय उपनिषद में ऐसा कहा गया है कि दृष्टि का अर्थ है ‘मानसिक दृष्टि’| आप आम लोगों के लिए व्याख्या करती हैं, लेकिन आप सब किस प्रकार देखती हैं?”

यहाँ मेरा उत्तर है कि युवावस्था से ही मैंने सांसारिक दृष्टिकोण से किसी भी चीज़ को नहीं देखा| मैं सभी को आध्यात्मिकता से जोड़ती हूँ| मैंने इस बात को बड़ी गम्भीरता से “काटो और जोड़ो” के रूप में लिखा है| साधारण मनुष्य एक वस्तु को अपनी स्थूल आखों से अथवा भौतिक दृष्टि से देखते हैं, तो किसी अन्य वस्तु को अपनी मानसिक दृष्टि के द्वारा| जो कुछ भी मैं अपनी भौतिक दृष्टि से देखती हूँ, मैं उसे भागवान से जोड़ देती हूँ| मैंने इस बारे में पहले बहुत से उदाहरण भी दिए हैं| अत: स्वामी अब तस्वीरें, मूर्त पदार्थ या कुछ अन्य वस्तुएं देते हैं और मुझे लिखने को कहते हैं| मैं प्रत्येक वस्तु में छिपे ज्ञान के बारे में लिख रही हूँ| जब कभी और जो भी मैं अपनी आखों से देखती हूँ मैं उसके बाहरी दृश्य को न देखकर केवल उसके आंतरिक अर्थ को देखती हूँ| मैं प्रत्येक वस्तु की आन्तरिक दिव्यता को बताती हूँ| इस संसार में दिव्यता से रहित कुछ भी नहीं है| सभी एक ही शाश्वत परमात्मा से आते हैं|



भागवान कृष्ण ने गीता में घोषणा की है कि सृष्टि में सभी कुछ एक माला में पिरोए हुए मनकों की तरह है| मनके अनेकों तरह की सृष्टियाँ हैं, भगवान धागा हैं जिसमें सभी मनके पिरोए हुए हैं| जब कोई मनकों को देखता है तो धागा दिखाई नहीं देता| सिर्फ मनके ही दिखाई देते हैं| इस तरह सभी सिर्फ बाह्य संसार ही देखते हैं और भ्रमित होते हैं| बाहर दिखाई देने वाले मनके सभी अलग अलग हैं| मनुष्य अपना समय केवल ‘मैं’ और ‘मेरा’ परिवार और पद आदि के ज़रिए व्यतीत करता है|

स्पर्श भावना ही जन्म का कारण है| जो कुछ भी मनुष्य के मन को छूकर उसे झ्न्झोरता है, वह सब स्पर्श भावना है| अत: मनुष्य बार बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है| अतृप्त इच्छाएं ही उसके पुनर्जन्म का कारण बनती हैं| हमें इस सत्य को अवश्य ही जानना चाहिए और ज्ञान प्राप्त करना चाहिए| सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य पुनर्जन्म से छुटकारा पा सकता है| मन हमेशा वस्तुओं की मांग करता है| इच्छाएं मनुष्य में निरंतर उत्पन्न होती रहती हैं| वह हमेशा कुछ न कुछ चाहता है|

स्वामी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि, “तुम भिखारी नहीं हो बल्कि सिंह हो”| 





सत्य साई स्पीक्स भाग ५ पृष्ठ ८५ में वह कहते हैं,

“क्या तुम दृश्य के बाद दृश्य जन्म के बाद जन्म में भिखारी और विदूषक की भूमिका करते करते थके नहीं हो? कम से कम इस जन्म में तो एक महान, उच्च, श्रेष्ठतम भूमिका की आकांक्षा करो|”

यही कुछ स्वामी ने कहा है| मनुष्य जन्म जन्मान्तर से एक भिखारी की तरह घूमता हुआ, खोजता हुआ दौड़ लगा रहा है| अब जब कि स्वामी यहाँ हैं, हम निश्चय ही भिखारी न बनें| यहाँ सभी परमात्मा की प्राप्ति के लिए आए हैं| इस समय जब स्वामी यहाँ हैं, हमें इस यथार्थ को अवश्य ही समझना चाहिए| सिर्फ इच्छाओं की वजह से ही मनुष्य यहाँ से वहाँ भाग रहा है| वह जगह जगह जाता है और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करता है| यही माया है, सब नाशवान है| यदि यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाए, तो तुम अमरत्व का आनन्द प्राप्त करोगे| यह जीवन हमें सिर्फ भागवान को पाने के लिए ही मिला है|

हम में से प्रत्येक के अन्दर सर्वोच्च शक्ति है| यदि इस बात की अनुभूति हो जाए और उसका उचित उपयोग किया जाए तो कोई भी सर्वोच्च बन सकता है| मनुष्य इस तथ्य को नहीं समझता कि वह स्वयं एक भिखारी है| जब कोई भिखारी उसके द्वार पर आता है तब वह उसे अनिच्छा से देखता है और दूर भगा देता है| हम अपनी तुच्छ इच्छाओं की संतुष्टि के लिए, अपने आत्मसम्मान की परवाह न करते हुए, भिखारियों की तरह सभी से याचना करते हैं|



संसार एक रंगमंच है, जहाँ सभी अभिनेता हैं| सभी ईश्वरीय अंश के रूप में जन्में हैं| अत: हमें इस सत्य को अपने जीवन के द्वारा दर्शाना चहिए| सभी एक ही परमात्मा के बच्चे हैं| सभी को यह घोषणा करनी चहिए,

“ में किसी भिखारी का बच्चा नहीं हूँ| इस नाटक में मैं राजकुमार हूँ, एक राजा का पुत्र हूँ| मैं सम्राट सत्य साई का पुत्र हूँ| मैं किसी विदूषक का पुत्र नहीं हूँ|”

सभी को इस तरह से विचार करना चहिए| हमें इस प्रकार अपने जीवन को जीने की शपथ लेनी चहिए| परन्तु हम कैसे जिएँ? हम सभी के प्रति नम्र रहें कर उनके प्रति प्रेम दिखाएँ| हम सभी इच्छाओं को सीमित कर भारतीय संस्कृति का अनुसरण करें| सत्य बोलें और धर्म परायणता के मार्ग पर चलें| जीवन में जो कुछ भी प्राप्त हुआ है, सिर्फ उसी में संतुष्ट रहें| जगह जगह काम और धन के लिए मत घूमो| आजकल सभी युवक विदेशों में जाकर धन कमाना चाहते हैं| किन्तु सभी कमाई हुई वस्तुएं नाशवान हैं| संसार छोड़ते समय हम रुपया पैसा और पद अपने साथ नहीं ले जा सकते| केवल अच्छे कर्म और गुण जो हम आध्यात्मिक जीवन में सीखते हैं, वही हमारे साथ आएँगे| पिछले ८४ सालों में स्वामी ने जो उपदेश दिया है, हमें उसे व्यवहार में लाना चहिए| उसे हम अपने जीवन में उतारें| बहुत हुआ बार बार जन्म और मृत्यु का यह क्रम| ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करो| इसीलिए महानतम अवतार ने आकर सबको उपदेश दिया है| संसार छोड़ते समय हम अपने साथ कुछ भी नहीं ले जाते हैं| अपनी वंश परम्परा को बढ़ाने का कोई फायदा नहीं है|

आइए एक उदाहरण देखें|

एक व्यक्ति है जिसके पुत्र की मृत्यु हो जाती है| माता पिता बहुत रोते बिलखते हैं| उसका दुःख देखकर गुरु आते हैं और उसे देव लोक ले जाते हैं| वहां वह अपने पुत्र को देखता है और उसके पास जाकर पूछता है, “बेटा, तुम्हारी माँ और मैं तुम्हारे लिए कितना बिलख रहें हैं| क्या तुम मेरे साथ अपने घर वापस नहीं चलोगे?” लड़का पूछता है, “आप कौन हैं? मैं यहाँ बहुत खुश हूँ| तुम मुझे भूलोक में क्यों बुला रहे हो? मेरे और तुम्हारे बीच क्या सम्बन्ध है?” वह लड़का चला जाता है|

मनुष्य का मन इसी तरह का है| कौन किसका रिश्तेदार है? मरने वाले और उसके परिवार के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है| पिता दुखी था क्यों कि उसका पुत्र स्वर्ग में था| उसने अपने पुत्र को पृथ्वी पर वापस लाने का प्रयास किया| वह चाहता था कि उसका उत्तराधिकारी उसके साथ वापस आए| उसकी वंश परम्परा चलती रहे और फले फूले| यही उसकी इच्छा थी| यह कैसी मूर्खता है| तुम अपने वंश को कितना ही घटाओ या बढ़ाओ, एक दिन सब नष्ट हो जाएगा| इसे अनुभव करो| अपने कर्म को निष्काम भाव से करो और भागवान को प्राप्त करने का प्रयत्न करो| स्वामी कि शिक्षाओं का अनुसरण करो| जागो! उठो! तुम भिखारी नहीं हो|

तुम यहाँ अपनी भिखारी कुल की बढ़ोत्तरी करने नहीं आए हो| तुम सम्राट सत्य साई के बच्चे हो|

यदि इस बात की अनुभूति हो जाए तो तुम्हारा नाम भी श्री रामकृष्ण परमहंस और रमणा महर्षि की तरह संसार में दीर्घकाल तक चमकता रहेगा|


जय साई राम|
वसन्त साई





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